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Tuesday, July 14, 2015

'ईश्वर नहीं जानता हमारी भाषा तो दुख कैसे पढ़ेगा'

किताब: ईश्वर, हां नहीं तो (कविता संग्रह)
कवि: सुधीर सक्सेना

बदलते युग में जहां प्रति पल कुछ न कुछ बदल रहा है, कहीं कोई उत्पत्ति हो रही है. कहीं विनाश हो रहे हैं. ये सब कुछ एक साथ हो रहा है. ऐसे में हम जो भी करते हैं, सोचते हैं या लिखते हैं, उसमें इन परिवर्तनों का भी समावेश होता है.
गद्य की सारी विधाओं में लगातार परिवर्तन हो रहा है, पद्य के स्वरूप में भी बदलाव हो रहा है जिसका कभी कभी भान भी नही होता. कुछ ऐसा ही बदलाव हमें सुधीर सक्सेना के काव्य संग्रह 'ईश्वर हां, नहीं...तो' में दिखता है.

सुधीर कविता का एकदम ताजा और अद्यतन विषय उठाकर पाठकों को झकझोरने और गहन चिंतन मनन के लिए विवश कर देते हैं. काव्य संग्रह के शीर्षक से ही कविताओं के स्वरूप का, भाव का, ढेर सारे तर्क वितर्क और प्रश्नों का साक्षात्कार हो जाता है.

शीर्षक ही इतना संदेह और तर्कों की मिश्रित बौछार लिए हुए है. दोनों ही बातें एक साथ कही गई हैं. एक ही वाक्य में कटाक्ष करते हुए दो भावों का प्रयोग है. 'हां और नहीं' ये विरोधाभास जीवन के हर क्षेत्र में हमारे सामने झूलता है. स्पष्ट है, जहां ईश्वर जैसी सत्ता की बात हो रही हो वहां ये मनःस्थिति आना स्वाभाविक ही है.

अस्ति और नास्ति पर युगों से मंथन होते आया है और हो रहा है पर अभी तक न तो अस्ति का प्रमाण मिला है न ही नास्ति का. इसलिए कवि भी हां और नहीं के बीच ही झूल रहा है. आस्तिकों के अपने तर्क हैं ईश्वर को मानने के और नास्तिकों के अपने तर्क हैं ईश्वर को न मानने के.



आइये देखते हैं कि सुधीर सक्सेना के अपने क्या तर्क हैं? क्या प्रमाण हैं?

शीर्षक के साथ ही कवि की रहस्यवादी प्रवृत्ति उभरकर सामने आती है. कवि एक तरफ ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारता दिखाई देता है. दूसरी तरफ नकार भी रहा है पर ये नकार भी पूर्ण नकार नहीं है. नहीं कहने के बाद भी कवि के मन में कुछ चलता है.

शीर्षक ही इतना रहस्य, प्रश्न, तर्क-वितर्क, मनन-मंथन लिए हुए है कि पाठक यहीं अटका रह जाए और वो खुद इस मनन-मंथन का शिकार हो जाए. इस काव्य संग्रह में 36 कविताएं हैं.

'ईश्वर यदि सिर्फ देवभाषा जानता है/ और इतनी दूर है हमसे' में कवि ने ईश्वर को हमसे बहुत दूर बताया है. जैसे दूर खड़े व्यक्ति को हमारी आवाज सुनाई नही देती, ठीक वैसे ही ईश्वर भी हमसे इतनी दूर है कि उस तक हमारी आवाज नहीं पहुंच पाती. लिहाजा उससे बातचीत होना भी संभव नहीं. इस संवादहीनता का एक और तर्क कवि ने दिया है कि ईश्वर हमारी भाषा भी नहीं जानता, न हम उसकी भाषा जानते हैं तो या तो वह बहुभाषी हो जाए या हम ही हो जाते हैं.

चूंकि ईश्वर हमारी भाषा नहीं जानता इसलिए हम अपने दुखों का दस्तावेज भी उसे लिख कर भेजें तो वो पढ़ न सकेगा. न ही किसी विधि से हमारी आवाज पहुंचने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकेगा क्योंकि वो हमारी भाषा ही नहीं जानता.

दूसरी कविता में कवि ईश्वर की राग-रंग-रुचियों के बारे में बताते हुए ईश्वर पर व्यंग्य करता है कि उसे 'सिर्फ' शास्त्रीय संगीत से मतलब है. उसे पुरातन चीजें पसंद है जो कि इस युग में ज्यादा व्यवहार में नहीं रह गई, जैसे साष्टांग प्रणाम करना, आदि. आगे इस कविता में कवि कहते हैं कि समय के साथ साथ पर्यावरण भी बदल चुका है, जैसा ईश्वर के समय था. ऐसे में ईश्वर के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखना बहुत मुश्किल है.

तीसरी कविता में कवि ने ईश्वर के जन्म को या यूं कहें कि पृथ्वी की उत्पत्ति को लक्षित करते हुए कहा है कि अरबों साल बीतने के बाद भी अगर ईश्वर में संवेदना बची होगी तो वह जरूर दुखी हुआ होगा. पृथ्वी पर जो विनाश और नरसंहार हुआ है या जो क्रूरता की परिभाषा दी गई है, चाहे वह बाहर के आक्रमणकारियों की ओर से हो या देश के अंदर ही हुई महाभारत हो, ईश्वर उन पर जरूर दुखी हुआ होगा. आगे कवि ने कहा है कि हमे ईश्वर के दुखों के अंत के लिये प्रार्थना करनी चाहिए.


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